लुप्त होते परंपरागत खेल
बीकानेर
संवादाता धर्मचंद सारस्वत
खारड़ा
भारत में खेलों का अपना एक इतिहास रहा है। इस धरती पर खेल को परंपरागत तरीकों से खेले जाते रहे है। लेकिन आज के समय में खेल और उसकी विरासतें विकास की भेट चढ़ चुकी हैं। खेल अब सिर्फ दूसरे दर्जे का एक विषय बनकर रह गए हैं। ऐसा नहीं है कि लोगों ने खेलों को पूरी तरह से भुला दिया है। क्योंकि आज के दौर में चारों तरफ हम शरीर या फिटनस से जुड़े कार्य में लोगों को पाएंगे, मगर खेल अपनी विरासतों और परंपराओ को बचाने में विफल रहे
खेलों की चकाचौंध के आगे परम्परागत ग्रामीण खेल तेजी के साथ लुप्त होते जा रहे हैं। क्रिकेट, बैडमिंटन जैसे खेत तेजी से लोकप्रिय होते जा रहे हैं। इनमें भी क्रिकेट का बुखार तो छोटे मोटे गांवों तक में फैल गया है। खेल विभाग की उपेक्षा एवं उदासीनता के कारण परम्परागत खेलों में बच्चों की रुचि समाप्त होती जा रही है। स्कूलों में भी इन खेलों को कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है। नोरंगलाल सारस्वत खारड़ा निवासी कहते हैं कि पहले शाम होते ही गांवों में खेल का जो शमां बंधता उससे बुजुर्गो का मन भी उमंगित हो पड़ता था। कबड्डी का एक दाव खेलने को उनका बूढ़ा मन भी जवान हो उठता था। कभी शाम होते ही ग्रामों में कबड्डी-कबड्डी आदि जोश और उत्साह से भरी आवाजें कभी कभार ही सुनाई पड़ती थी। बिना किसी प्रकार के खर्च वाले इस खेल में प्रतिभागियों को अपनी शक्ति व शौर्य के साथ शारीरिक व मानसिक कुर्ती का प्रदर्शन करना पड़ता है। ग्रामीणों का यह प्रमुख खेल उनकी दिनचर्या से धीरे धीरे बाहर हो गया है।
परंपरागत खेलो को जीवित रखने का प्रयास खारड़ा के युवा बुजुर्ग गांव की गुवाड़ में फाल्गुन महीने में हड़वली खेलते हैं चंग बजाते हैं